जिंदगी, साइकिल की जैसी है सवारी
बात है बहुत पुरानी, उम्र भी नहीं थी जब सयानी,
सुनाती थी मेरी नानी, परियों की कहानी ।
उन दिनों उम्र महज दस साल की थी,
पंचम कक्षा में पढती थी, स्कूल की टॉपर थी ।
मामा ने खुश होकर मेरे नम्बरों से एक साइकिल दिलायी थी,
देख साइकिल जैसे उपहार को मेरे मन में भी खुशहाली आयी थी ।
सफेद, गुलाब सा रंग उसका मेरे मन को भाया था,
चलाऊँगी कैसे साइकिल, यह सोच मेरा मन घवराया था ।
रोज सुबह उठकर साइकिल चलाना , एक शौक सा था,
मेरे मन के अन्दर नयी उमंग, एक अजीब शोर सा था ।
साइकिल से रिश्ता कुछ मेरा पुराना सा हो गया था,
साइकिल जब-जब चलाती , तब तब मेरा मन खोया था ।
आज फिर उस जैसी साइकिल को देखकर, मुझे अपनी साइकिल की याद आयी,
जी चाहता है चली जाऊ दोबारा उस बचपन की गलियों में जो लौटकर कभी ना आयी ।
पर आज, जिंदगी साइकिल की जैसे है सवारी,
हर वक्त है सम्भलने की ठेकेदारी ।
"झल्ली"